terror
शांति की बात करना क्या देशभक्ति है? अमेरिका आज बहस के इसी मुद्दे से गुजर रहा है. इराक में उसकी हार का निहितार्थ और जीत का अर्थ तलाशा जा रहा है. निश्चय ही युद्ध को सदैव देशभक्ति से जोड़ा गया है. किसी भी नेतृत्व के लिए एक हाथ में बंदूक और दूसरे हाथ में बिगुल जीत का ध्वज माना गया. जो जितना ज्यादा अपनी मातृभूमि का कर्ताधर्ता बनता जाता है, वह अपने लोगों को उतना ही अधिक कब्र की ओर धकेल सकता है. आतंक वादियों की देशभक्ति भी ऐसा ही मजबूत लबादा है, जो अपने पापों को ऐसे ही गैरजिम्मेदार तरीके से घालमेल कर बहाना-बनाना चाहते हैं.
इसी तरह आज कमांडर इन चीफ की महिमा की रक्षा करना भी देशभक्ति का तकाजा बन गया है. भले ही यह कोई बाध्यता नहीं है. राजनीतिज्ञ वोट की तलाश में शांति प्रयासों को युद्ध में तब्दील करने की मंशा रखते हैं. वजह यह कि शांति अस्पष्ट होती है, जबकि युद्ध में बल की प्रधानता दिखती है. यद्यपि आम धारणा यही है कि मतदाता शांति को ही पसंद करते हैं, पर सामान्य अनुभव हमें बताता है कि युद्ध के बाद मतदाता ज्यादा प्रभावित किये जा सकते हैं, जबकि डर की भावना को सर्वाधिक मुखर रू प में युद्ध के माध्यम से व्यक्त कि या जा सक ता है. भावनाओं और तर्क का यही वह शक्तिशाली समिश्रण है, जिसे बुश ने पिछले पांच वर्ष से बनाये रखा है. अमेरिकी चेतना में डर की भावना बुश के कारण नहीं, बल्कि 9/11 की घटना से पैदा हुई. इस पूरे मुद्दे को जॉर्ज बुश ने ब़डी होशियारी से भुनाया है. उन्होंने अमेरिकन एजेंडा के बजाय बुश बजेंडा को सर्वोपरि रखा. यही वह सामान्य कारण है, जिस बिना पर आफ गानिस्तान और इराक युद्ध के बीच अंतर तलाशा जा सकता है. ओसामा बिन लादेन को अमेरिका को सौंपने से तालिबानियों के इनकार करने से अमेरिका को उस पर हमला क रने की वैधता मिल गयी, लेकिन सद्दाम हुसैन के खिलाफ युद्ध आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जैसा नहीं माना जा सकता.
इराक युद्ध ने इस बात को बार-बार सिद्ध किया कि जॉर्ज बुश और उपराष्ट्रपति डिक चेनी ने इस पूरे प्रकरण को उपहास का विषय बना दिया. इसके लिए तथ्यों को तोड़ मोड़ कर और अतिशयोक्ति पूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया. सद्दाम हुसैन पर लादेन का सहयोगी होने का झूठा आरोप थोपा गया. आतंक के खिलाफ युद्ध का मुहावरा लोगों में उत्सुकताका विषय बना दिया गया. एक अदृश्य आतंक की सत्ता के खिलाफ किस तरह लड़ा जाये, यह बात अचानक ही नहीं पैदा हुई. अपने शत्रुओं को निशाने पर लेने और व्हाइट हाउस को सशक्त बनाने के लिए इन बातों को जानबूझ कर हवा दी गयी. बुश से जो सबसे बड़ी गलती हुई वह यह थी कि अपने दुश्मनों को सजा देने की उनकी इच्छा इन सबके बावजूद एक अधूरा सपना ही रह गयी. उनकी आशाओं के विपरीत इराक में चरमपंथियों के उभार से यह बात सिद्ध हुई कि उनके लक्ष्य ने उन्हीं के लिए विध्वंसक परिणाम पैदा कि ये. वहां रोज हो रही हिंसक घटनाएं, सेना पर अतिरिक्त दबाव, बढ़ रहे वित्तीय खर्च और जनविरोध बताते हैं कि बुश और उनकी रिपब्लिक न पार्टी के लिए यह पूरा अभियान बहुत महंगा सिद्ध हुआ. फिर भी युद्ध को सही ठहराने की कोशिश से बुश की दृढ़ता का पता चलता है. हालांकि इसकी उपयोगिता खत्म हो गयी है, लेकि न इसका राजनीतिक फ़ायदा तो उठाया ही जा सकता है. अब बुश और डेमोक्रे ट्स के बीच बहस का मुद्दा यह है कि क्या इराक से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की कोई समय सीमा तय होनी चाहिए? डेमोक्रे ट्स चाहते हैं कि अगले 18 महीनों के अंदर, यानी नया राष्ट्रपति चुने जाने से पूर्व सैनिकों की वापसी हो जानी चाहिए. लेकि न बुश का मानना है कि इसकी समय सीमा तय करने से वे युद्ध हार जायेंगे. वस्तुत: बुश की इन बातों से उनका खोखलापन ही उजागर होता है. वह अपनी नयी चरमपंथी पुनरुत्थान रणनीति के तहत इराक में शांति लाने के लिए अमेरिकी सैन्य टुकड़ियों की संख्या बढ़ाना चाहते हैं. ऐसी बातों से जॉर्ज बुश नाराज रिपब्लिक नों का समर्थन पा रहे हैं, क्योंकि इससे कहीं न क हीं एक समय सीमा बंधती है. यदि अक्तूबर-नवंबर माह तक यह रणनीति कारगर नहीं होती है, तो बुश अपनी नीतियों में बदलाव करेंगे. और इस बदलाव से एक प्रकार से इराक से मुक्ति मिल सकेगी. इस तरह डेमोक्रेट की अपेक्षा रिपब्लिक न बुश को और भी कम समय दे रहे हैं. वस्तुत: बुश के लफ्ज कुछ अलग हैं, जबकि अमेरिकी सेना और जनता इराक से मुक्ति चाहती है. पेंटागन ने स्वीकार किया है कि इधर सशस्त्र बलों पर बहुत दबाव रहा है, इस कारण इराक में सैनिकों की सामान्य ड्यूटी सुधार कर उसे 15 महीने कर दिया गया है. वियतनाम युद्ध के काल में भी यह समय सीमा अधिक तम 15 महीने ही थी. सेना का कहना है कि बहुत ऊ़चे वेतन पर पिछले वर्ष 80 हजार लोगों की भर्ती के बावजूद उसने 14 लाख सैनिकों की निर्धारित संख्या को बनाये रखा है. इस संख्या को सामान्य अवकाश का सूचक नहीं माना जा सकता. इससे इराक में सैनिकों की कमश: घटती संख्या का भी पता चलता है. युद्ध के समय अधिकतर युवा अपने बेहतर भविष्य, अधिक लाभ और मिलनेवाले ढेर पैसे की वजह से सेना में भर्ती हुए थे. कुछ डेमोक्रेट राजनीतिज्ञ पहले के मसौदे में बदलाव चाहते हैं, ताकि धनी बच्चें को युद्ध के मैदान में लाया जाये. उनका मानना है कि यदि जॉर्ज बुश की नीतियों के लिए अभिजात्य वर्ग अपने बच्चें को मरने के लिए भेजता है, तो इससे युद्ध बहुत जल्दी समाप्त होगा.
कोई नहीं जानता कि इसका परिणाम अमेरिका की किस पीढ़ी को भुगतना होगा. इस युद्ध की लागत 500 बिलियन डॉलर पार कर चुकी है. इसका सबसे बड़ा नुकसान वित्तीय मोर्चे पर हुआ है. युद्ध में बहाये जा रहे खून की कीमत बिगड़ते बैलेंस सीट के रूप में सामने आया है. इराक में उपयोग में आ रहे हेलिकॉप्टरों को सितंबर में नयी मशीनों द्वारा बदल दिया जायेगा. यह नया बेड़ा वी-22 विमानों का होगा, जो हेलिकॉप्टर की तुलना में अधिक गतिवाला और युद्धक किस्म का होगा. हालांकि चरमपंथियों के विरुद्ध इसकी उपयोगिता के बारे में काफी अनिश्चय की स्थिति है, पर इसकी लागत कम से कम प्रति विमान 20 बिलियन डॉलर तो है ही. इससे सामरिक उद्योगों को बहुत धनी होने का मौका जरूर मिल जायेगा.

देखें फ़ारेनहाइट 9.11. सितंबर 11, 2001 को ट्रेड सेंटर टावरों पर हमले की असली कहानी. इसी घटना को आधार बना कर अफ़गानिस्तान और इराक पर हमला किया गया.

अब अमेरिका की जनता को एहसास होने लगा है कि पैसे या सुंदर लफ्जों के छद्म से जमीनी युद्ध नहीं जीता जा सकता. बुश के लफ्जों के छद्म की रणनीति के बने रहने की सामान्य वजह यह है कि यहां युद्ध की कोई परिभाषा नहीं है. इसलिए हासिल किये गये निश्चित लक्ष्यों की बात भी नहीं की जाती. वास्तव में देखा जाये, तो इराक युद्ध के दोनों घोषित उद्देश्य पूरे हो चुके हैं. अब यह निश्चित हो चुका है कि वहां न तो सामूहिक विनाश के हथियार हैं और न ही सद्दाम हुसैन. इराक अगले सौ वर्ष तक उन्हें पाने की सामर्थ्य भी नहीं रखता है. अब सद्दाम मर चुके हैं और उनकी सत्ता नष्ट हो चुकी है. इसलिए अब अमेरिका और ब्रिटेन की सेना बगदाद में पुलिस मैन के रूप में क्यों बनी हुई है? यदि यही उनका मिशन है, तो यह असंभव मिशन है. इससे किसी भी दिन पता चलेगा कि अमेरिका और ब्रिटेन की मुख्य जगहों पर जवाबी हमला किया गया. जब तक इराकी धरती पर विदेशी सैन्य टुकड़ियां बनी रहेंगी, तब तक वहां से उग्रवाद को नहीं मिटाया जा सकता. जब कोई प्रशासन बिखरना शुरू होता है, तो केवल एक खंभा ही नहीं गिरता; विश्वास के क्षरण का प्रभाव पूरी संरचना पर पड़ता है. इस सरकार के सभी महत्वाकांक्षी लोग गलत कारणों से पहले पन्ने पर छाये हुए हैं. इस विजय के सूत्रधार कार्ल रावे यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि व्हाइट हाउस के अभिलेखागार से लाखों करोड़ों ई-मेल क्यों हटाये गये. इराक के मुख्य मस्तिष्क पॉल वोल्फोविट्ड अब विश्व बैंक के अध्यक्ष हैं. वह अभी अपने गर्ल फ्रेंड को बहुत ऊंचे वेतनमान पर नौकरी देने के मामले में अपने प्रभाव के दुरुपयोग मामले में सफाई दे रहे हैं. उन पर आरोप लगोनवालों का मानना है कि वह विश्व बैंक की परवाह नहीं करते. वास्तव में पॉल वोल्फोविट्ज, कार्ल रावे, डिक चेनी और जार्ज बुश विश्व बैंक की बहुत ज्यादा परवाह करते हैं. यदि वह किसी की परवाह नहीं करते तो शेष पूरे विश्व की. इस तरह दुनिया पुनर्वापसी की राह पर है.

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